दिगंबरों के अनुसार विष्णु, नंदी, अपराजित गोवर्धन और भद्गबाहु नामक पाँच श्रुतकेवली हुए, जबकि श्वैतांबर परंपरा में प्रभव, शब्यंभव, यशोभद्र, संभूतविजय और भद्रवाहु श्रुतकेवली माने गए हैं। भद्गबाहु दोनों संघों में सामान्य हैं, इससे मालूम होता है कि भद्रबाहू के समय तक जेन संघ में दिगंबर श्वेतांबर का मतभेद नहीं हुआ था। श्वैतांबर संप्रदाय के अनुसार महावीर निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद कं सन् ८३) रथवीपुर में शिवभूति द्वारा बोटिक मत (दिगंबर) की स्थापना हुई। कोंडिन्य और कोट्टिवीर शिवभूति के दो प्रधान शिष्य थे।
प्रमुख दिगंबराचार्या कुन्दकुन्द स्वामी की प्रतिमा (कर्नाटक)
दिगंबर मान्यता के अनुसार उज्जैन में चंद्रगुप्त के राज्यकाल में आचार्य भद्रबाहु की दुष्काल संबंधी भविष्यवाणी सुनकर उनके
शिष्य विशाखाचार्य अपने संघ को लेकर पुन्नाट चले गए, कुछ साधु सिंधु में विहार कर गए। जब साधु उज्जेनी लौटकर आए तो वहाँ
दुष्काल पड़ा हुआ था। इस समय संघ के आचार्य ने नग्नत्व ढाँकने के लिए साधुओं को अर्थफालक धारण करने का आदेश दिया;
आगे चलकर कुछ साधुओं ने अर्थफालक का त्याग नहीं किया, ये श्वेतांबर कहलाए। मथुरा के जेन शिलालेखों से भी यही प्रमाणित
होता है कि दोनों संप्रदाय ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी के आसपास एक दूसरे से पृथक् हुए। गुजरात और काठियावाड़ में
अधिकतर श्वेतांबर तथा दक्षिण भारत,मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में अधिकतर दिगंबर पाए जाते हैं।